होरी गायन शैली - Hori Gayan shaili

होरी गायन शैली 

  होरी शब्द की व्युत्पत्ति का सम्बन्ध शास्त्रीय संगीत की धमार शैली के साथ जोड़ा जा सकता है , क्योंकि इसके साहित्य में प्रायः होरी का वर्णन मिलता है । 

 भारतीय संस्कृति में शृंगार और आनन्द महोत्सव के रूप में बसन्त एवं होली क्रीड़ा का हमेशा से महत्त्व रहा है । प्राचीन ग्रन्थों में इसे मदनोत्सव कहा जाता है ।। ऋतुराज के आने पर उसके मनमोहक वातावरण में स्वयं को सम्मिलित करते अपनी उमंगों को व्यक्त करने का त्योहार है होली । होरी मूलत : ब्रज शैली का गायन है ।

ख्याल गायक जब होली सम्बन्धी गीतों को विभिन्न तालों में गाते हैं , तब उन्हें होरी कहा जाता है । राधा – कृष्ण और कृष्ण – गोपियों की फाल्गुन मास की लीलाओं के वर्णन को जब धमार ताल में गाते हैं , तो उसे धमार कहा जाता है । जब ख्याल गायक उसे त्रिताल दीपचन्दी कहरवा आदि तालों में गाते हैं , तब उसे होरी कहा जाता है ।

होरी की विशेषता
होरी की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

• उपशास्त्रीय संगीत प्रधान होरी का ढाँचा ठुमरी एवं धमार के अनुरूप ही होता है तथा अधिकांशत : उन्हीं रागों पर आधारित होती है इसमें रागों की शास्त्रबद्धता , नियमबद्धता एवं ताल – लय का कठोर अनुपालन होता है ।
• धमार तथा होरी / होली में बहुत अन्तर है । इन दोनों की शैलियाँ अलग – अलग होती हैं । होरी में तान , आलाप , मुर्की तथा खटके आदि का प्रयोग ख्याल गायन की तरह होता है । इन गीतों को मौसमी गीत भी कहा जाता है । होरी को अधिकत फाल्गुन में तथा होली के अवसर पर ही गाया जाता है ।

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