प्रबंध Prabandh
प्रबंध
संगीत में प्रबंध का अर्थ है "धातु और अंगों की सीमा में बँधकर जो रूप बनता है, वह प्रबंध कहलाता है।" आधुनिक काल में
बन्दिश शब्द का प्रबंध के स्थान पर प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ भी बाँधने से है।
ठाकुर जयदेव सिंह के मत से,
"Prabandh was a vocal composition form, a systematic and organized Geeti (song) with Sanskrit
texts. The word "Prabandh" literally means anything well-knit or well-fitted."
कोई भी शब्द रचना सार्थक अथवा निरर्थक प्रबंध कहला सकती है, यदि वह धातु और अंगों से बद्ध हो।
इस प्रकार प्रबंध का संबंध रचना से है। प्रबंध ही बाद में गीत कहे गये। प्रबंध में अक्षर ज्यादा और गीत में
स्वरों का फैलाव अधिक देखने को मिलता है। प्रबंधों के ही अधिक और विकसित पर सरल रूप गीत
कहलाए। गीत का अर्थ है- 'जो गाया गया' अर्थात् प्रबंधों को सरल रूप देकर गाना ही गीत कहलाया।
अनेक ग्रंथों में प्रबंध शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे- मतंग के बाद नामदेव ने 'भरत-भाष्य' में प्रबंधों को
'देशी गीत का ध्याय' कहा है, 'मानसोल्लास' में प्रबंध संज्ञा का प्रयोग हुआ है। इसके अलावे 'संगीत राज',
'संगीत दर्पण', 'संगीत पारिजात', 'नाट्य चूड़ामणि', 'अनूप संगीत' इत्यादि अनेक ग्रंथों में प्रबंध संज्ञा का
प्रयोग किया गया है और इस प्रबंध संज्ञा को धातु और अंगों से निबद्ध माना है।
प्रबंध का विस्तार एवं सुसम्बद्ध ढंग से निरूपण सर्वप्रथम "संगीत रत्नाकर" में ही उपलब्ध होता है।
सारंगदेव के अनुसार भी केवल धातु और अंगों का होना ही प्रबंध के लिए अनिवार्य है। मतंग मुनि ने अपने
ग्रंथ 'वृहद्देशी' में 49 देशी प्रबंधों का उल्लेख किया है एवं पंडित सारंगदेव ने भी 75 प्रबंधों का उल्लेख
किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि 7वीं सदी से 13वीं सदी तक संगीत में शास्त्रीय शैली प्रबंध गान का
खुब प्रचलन रहा होगा।
प्रबंध में विशेषतयः जिन तत्वों का समावेश रहता है, वे है-
· रसो से संबंद्ध
· आध्यात्म से संबंद्ध
• विशेष ऋतुओं से संबंद्ध
• भाषाओं से संबंद्ध
· छन्दों पर आधारित
· अक्षरों की आवृति से
· नाट्य के तत्वों से युक्त
· शैली की विशेषता से युक्त।
प्रबंध की धातु :
पंडित सारंगदेव ने अपने ग्रंथ में प्रबंध की पाँच धातुओं का उल्लेख किया है, लेकिन साधारणतः चार धातुओं
का ही उल्लेख मिलता है, जिसके नाम इस प्रकार है-
(1) उदग्राह
(2) ध्रुव
(3) मेलापक
(4) आभोग
उदग्राह धातु : प्रबंध गीतों का वह भाग है, जिसे प्रबंध गायन के पहले गाया जाता है। विद्वानों का मत है
कि उदग्राह का अर्थ है प्रारंभ करना। अतः उदग्राह के द्वारा ही प्रबंध गायन का प्रारंभ होता था।
ध्रुव धातु : ध्रुव धातु प्रबंध गायन शैली का दुसरा खंड है। प्रबंध गीत में मेलापक और आभोग धातु का भी
लोप किया जा सकता है, लेकिन ध्रुव धातु का नहीं। यह एक अत्यंत आवश्यक भाग माना जाता है। (ध्रुव
धातु यानि अचल धातु)
मेलापक धातु : मेलापक धातु प्रबंध गीत का तीसरा चरण है। इस धातु का नाम मेलापक इसलिए पड़ा
क्योंकि इस धातु को उदग्राह और ध्रुव धातुओं से मिलाया जाता था।
आभोग धातु : आभोग प्रबंध का चौथा चरण था। प्रबंध गीतों को पूर्ण आभोग धातु से किया जाता था।
इन चारों धातुओं के अलावा सारंगदेव ने पाँचवे धातु का उल्लेख अपने ग्रंथ 'संगीत रत्नाकर' में किया है,
जिसका नाम अन्तर धातु रखा था। विद्वानों के मत से इस धातु का प्रयोग किसी विशेष प्रबंधों में किया
जाता था।
संक्षेप में हम कह सकते है कि उदग्राह का लक्षण है गीत को ग्रहण करना, मेलापक का लक्षण है उदग्राह
और ध्रुव को जोड़ना, बार-बार प्रयुक्त होने पर ध्रुव, और ध्रुव का अच्छी तरह भोग कराने के कारण आभोग
संज्ञाएँ है।
धातुओं की संख्या के आधार पर प्रबंध के तीन भेद माने गए है - दो धातु होने पर 'द्विधातु', तीन धातु होने
पर 'त्रिधातु', और चार धातु होने पर 'चतुर्धातु' कहते है। प्रबंध में कम-से-कम दो धातु का रहना अनिवार्य
है।
प्रबंध के अंग :
प्रबंध में 6 अंग है। प्रबंध गान का स्वरूप उसके विभिन्न अंगों से बनता था। जिस प्रकार ध्रुपद गायन शैली
में स्वर, ताल और शब्द होते है, उसी तरह मध्यकालीन प्रबंधों में अंग प्रधान होते थे, जो निम्नलिखित है-
· स्वर
· विरूद
· तेन
· पद
• पाट
· ताल
स्वर : स्वर नामक अंग से षड़जादि ध्वनियाँ और उनके सांगीतिक स्वर सा, रे, ग, म, प, ध, नि स्वराक्षरों
का भान होता है।
विरूद : किसी गीत के अंतर्गत नाटक में आए हुए नायक की प्रशंसा में कहे गए शब्द विरूद कहलाता है।
तेन : तेन को तेनक भी कहा गया है, जिसका अर्थ है मंगल ध्वनि अथवा मंगल सूचक।
पद : पद से अभिप्राय है- शब्द समूह। नाटक में कार्य करने वाले पात्रों के गुणों को प्रकट करने वाले
शब्द-समूह पद कहलाते है।
पाट : वाद्यों के अक्षरों के समूह को पाट कहा गया है। वाद्यों के ये बोल पाटाक्षर भी कहलाते है।
ताल : जो प्रबंध गीतों की लय का माप करती है, वे ताल है। जैसे- आदिताल, एकताल, इत्यादि।
तेन और पद, पाट और विरूद, तथा स्वर और ताल - यह दो-दो अंग एक साथ बनाए गए है। तेन और
पद से प्रबंध का स्वरूप प्रकाशित होता है। पाट और विरूद से प्रबंध की विभिन्न क्रियाओं का पालन होता
है। स्वर और ताल से प्रबंध को गति प्रदान होती है। इन अंगों के बिना प्रबंध की कोई सत्ता नहीं हैं।
प्रबंध का वर्गीकरण :
प्रबंधों का वर्गीकरण तीन वर्गो में किया गया है-
1 सूड़ प्रबंध
2 आलिक्रम प्रबंध
3 विप्रकीर्ण प्रबंध।
सूड प्रबंध को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है-
(1) शुद्ध सूड प्रबंध तथा (2) सालग/छायालग सूड प्रबंध
शुद्ध सूड प्रबंध 8 थे -
1 एला, 2 करण, 3 ढेंकी, 4 वर्तनी, 5 झोंषड़, 6 लव, 7 रास, एवं 8 एकताली।
सालग/छायालग सूड प्रबंध 7 थे -
1 ध्रुव, 2 मध्य, 3 प्रतिमढय, 4 निस्सारूक, 5 अड्ड, 6 रास एवं 7 एकताली।
इनमें से एला नामक प्रबंध को सर्वोपरि, उत्तम व महाकठिन प्रबंध माना गया है।
प्राचीन प्रबंधों से यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न श्रेणियों की बंदिशों में ताल-राग, छंद और वस्तु निर्मित की
विचित्रता, विशेष अवसर और रस का प्रभाव था। प्राचीन काल के उपरान्त मध्ययुगीन ग्रंथों में प्रबंध के
स्वरूप में परिवर्तन आया और नए प्रबंधों की रचना हुई। दक्षिण भारत में तो 17वीं शताब्दी तक प्रबंधों का
प्रचलन था। पं. व्यंकटमखी के समय तक प्रबंधों का अस्तित्व था, किन्तु बाद में वे अप्रचलित हो गए।
दक्षिण संगीत में जो पल्लवि, अनुपल्लवि और चरणम् का विकास हुआ, उसका मूल हमें ध्रुव, अंतरा और
आभोग में मिलता है। इसी प्रकार उत्तरी संगीत में ध्रुपद के स्थायी, अंतरा, संचारी और आभोग की तुलना
प्रबंध के अवयवों के साथ की जा सकती है।
अतः उत्तरी और दक्षिणी दोनों ही संगीत प्रणालियों की बंदिशों का यदि ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाए तो
यह पता चलता है कि प्राचीन प्रबंधों से इनका कुछ-न-कुछ संबंध अवश्य है। आधुनिक गीत में पाए जाने
वाले दो भागों स्थायी और अंतरे का प्रबंधों के दो भागों के साथ संबंध है। आधुनिक स्थायी को ध्रुव के
समान माना जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक बंदिश में यह बराबर कायम रहती है और अंतरे को धातु के
समान माना जा सकता है।
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