सादरा गायन शैली - Sadara Gayan
सादरा गायन शैली
सादरा अर्द्धशास्त्रीय संगीत और लोकगीत के बीच की कड़ी है गायन की यह शैली दादरा से बहुत मिलती – जुलती है । सादरा को अधिकतर कथक गायक गाते हैं । इसमें कहरवा , रूपक , झपताल तथा दादरा इन तालों का प्रयोग होता है । भाव की दृष्टि से गीतों में शृंगार रस और उसकी चंचलता की प्रधानता रहती है इसलिए इसकी प्रकृति प्रायः ठुमरी की तरह होती है ।
ठुमरी गायक सादरा भली प्रकार गा सकते हैं । वाजिद अली शाह ने कई सादरा गीत भी लिखे जो कि अधिकांशतः खमाज राग में हैं । कुछ विद्वानों का ऐसा विचार है कि मध्यकाल में ठुमरी के साथ मिलती – जुलती एक और शैली प्रचार में आई जिसको सादरा कहा गया ।
क्रमिक पुस्तक मालिका के 6 भागों में ध्रुवपद के अन्तर्गत झपताल की बन्दिशें भी प्राप्त होती हैं , जिससे सादरा शैली का आभास मिलता है । राग बिहाग , कायम रहे राज़ और उमर दराज आदि रचनाएँ सादरा के अन्तर्गत गाई जाती हैं ।
सादरा की विशेषता
सादरा शैली की निम्न विशेषताएँ हैं –
• सादरा के भाग ध्रुवपद की भाँति दो अथवा चार स्थायी , अन्तरा संचारी आभोग आते हैं । इस गायन में ध्रुवपद तथा होरी गायन से अधिक चपलता है । सादरा गायन में स्थायी को शुद्धता से ध्रुपद की परम्परा से गाया जाता है । लय बाँट का कार्य जिसे उपज भी कहते हैं और बोलतान का प्रयोग ही सादरा गायन की विशेषता है ।
• प्रायः झपताल में व कभी – कभी 10 मात्राओं वाली सूलफाक ताल में ध्रुपद अंग से गाया जाने वाला गीत सादरा कहलाता है । उत्तर भारत में ध्रुवपद के समान ही सादरा गायन प्रचलित था और आज भी ख्याल गायकों से इस विधा को सुना जा सकता है
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