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Showing posts from August, 2024

पंडित भीमसेन जोशी Pt Bhimsen Joshi

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 पंडित भीमसेन जोशी भारतीय शास्त्रीय संगीत के हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन में एक प्रमुख हस्ती थे। उन्हें ख़याल गायकी के लिए विशेष रूप से जाना जाता है और वे किराना घराने के प्रसिद्ध गायक थे। उनकी गायकी में शुद्धता, शक्ति, और आध्यात्मिकता की अद्वितीय भावना दिखाई देती है। भीमसेन जोशी का जीवन, उनकी संगीत यात्रा और उनका योगदान भारतीय संगीत के इतिहास में अमूल्य है। प्रारंभिक जीवन - जन्म: पंडित भीमसेन जोशी का जन्म 4 फरवरी 1922 को कर्नाटक के गडग जिले के रोन में हुआ था। उनका पूरा नाम भीमसेन गुरुराज जोशी था।  - परिवार: उनके पिता गुरुराज जोशी एक स्कूल शिक्षक थे और उनके परिवार में संगीत का माहौल था। भीमसेन जोशी का संगीत के प्रति रुझान बचपन से ही था, और वे कीर्तन और भजन सुनते हुए बड़े हुए। - शिक्षा: भीमसेन जोशी ने अपने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा पंडित श्यामाचरण जोशी से ली। संगीत के प्रति उनकी जिज्ञासा और जुनून ने उन्हें अपने घर से दूर विभिन्न गुरुओं की खोज में भेजा। उन्होंने पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, और कई अन्य जगहों पर जाकर संगीत की शिक्षा ली। संगीत यात्रा - गुरु: भीमसेन जोशी ने प्रस...

पंडित रविशंकर Pt Ravishankar

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 पंडित रविशंकर, भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक महान सितार वादक और संगीतज्ञ थे। उनका जन्म 7 अप्रैल 1920 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। पंडित रविशंकर का नाम भारत और विश्व के संगीत इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई और इसे दुनिया भर में लोकप्रिय बनाया।  जीवनशैली - संगीत के प्रति समर्पण: पंडित रविशंकर का जीवन संगीत के प्रति अत्यधिक समर्पित था। उन्होंने अपने बड़े भाई उदय शंकर की नृत्य मंडली के साथ विदेश यात्राएं कीं, लेकिन उनका मन सितार वादन में लगा। उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में उस्ताद अलाउद्दीन ख़ान से सितार की शिक्षा लेना शुरू किया और अपने गुरु के प्रति गहरा सम्मान और भक्ति भाव रखा। - आध्यात्मिकता और साधना: पंडित रविशंकर का संगीत आध्यात्मिकता से भरा हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में साधना, योग, और ध्यान को महत्व दिया और संगीत को आत्मा की शांति और साधना का माध्यम माना। उनकी साधना ने उन्हें संगीत की गहराइयों में डुबो दिया और यह उनके वादन में स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। - सरलता और विनम्रता: पंडित रविशंकर ...

उस्ताद अल्लारखा Ustad Allarakha

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 उस्ताद अल्ला रखा, जिन्हें अल्ला रखा ख़ान के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक प्रमुख तबला वादक थे। उनका जन्म 29 अप्रैल 1919 को जम्मू में हुआ था। अल्ला रखा को तबला वादन के क्षेत्र में उनकी बेमिसाल प्रतिभा के लिए जाना जाता है, और उन्होंने विश्व भर में भारतीय शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  जीवनशैली - संगीत के प्रति समर्पण: उस्ताद अल्ला रखा का जीवन संगीत और तबला के प्रति समर्पित था। उन्होंने बहुत ही कम उम्र में संगीत की शिक्षा लेना शुरू किया और इसे अपने जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बना लिया। उनकी साधना और समर्पण ने उन्हें तबला वादन में अद्वितीय ऊँचाई तक पहुँचाया। - सादगी और विनम्रता: उस्ताद अल्ला रखा बहुत ही सादगीपूर्ण और विनम्र व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्धि के बावजूद अपने जीवन में सादगी बनाए रखी और संगीत को ही अपने जीवन का केंद्र माना।  - गुरु-शिष्य परंपरा: उन्होंने अपने गुरु से मिले ज्ञान को पूरी तरह से आत्मसात किया और उसे अपने शिष्यों में बाँटा। उस्ताद अल्ला रखा ने तबला की शिक्षा को नए आयाम दिए और उनकी गुरु-शिष्य परंप...

पंडित समता प्रसाद Pt Samta Prasad

 पंडित समता प्रसाद, जो कि "गुडाई महाराज" के नाम से भी प्रसिद्ध थे, भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक महान तबला वादक थे। उनका जन्म 20 जुलाई 1921 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। समता प्रसाद का ताल-वाद्य में योगदान अद्वितीय है, और उन्होंने तबला वादन को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया।  जीवनशैली - संगीत के प्रति समर्पण: पंडित समता प्रसाद का जीवन पूरी तरह से संगीत को समर्पित था। उन्होंने अपनी कला को साधने के लिए कठोर साधना और अभ्यास किया। उनका अनुशासन और नियमितता उनके वादन में साफ झलकता था।    - सादा जीवन: उनके जीवन का अधिकांश समय साधारण तरीके से बीता। वह बहुत ही विनम्र और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, और अपनी कला के प्रति बेहद समर्पित थे। -गुरु-शिष्य परंपरा: उन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा का पालन किया और अपने शिष्यों को भी उसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनके शिष्य आज भी उनके द्वारा दिए गए ज्ञान और सिखाए गए मूल्यों का अनुसरण करते हैं।

उस्ताद अमीर हुसैन खा Ustad Amir Hussain Kha

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उस्ताद अमीर हुसैन खा का जन्म 1916 में उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में एक संगीत परिवार में हुआ था। उनका परिवार पारंपरिक रूप से तबला वादन के लिए जाना जाता था, और उन्होंने अपने पिता उस्ताद ग़ुलाम हुसैन खान से तबला वादन की प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। बाद में, उन्होंने उस्ताद मुनीर खान से भी प्रशिक्षण लिया, जो फर्रुखाबाद घराने के एक प्रमुख तबला वादक थे। प्रारंभिक जीवन और शिक्षा उस्ताद अमीर हुसैन खान ने कम उम्र में ही तबला वादन में अपनी प्रतिभा का परिचय देना शुरू कर दिया था। उन्हें घराने की परंपराओं और तकनीकों में निपुणता हासिल थी, और उन्होंने इन तकनीकों को न केवल संजोया बल्कि उन्हें नए आयाम भी दिए। फर्रुखाबाद घराने की विशेषताएं, जैसे कि लय की जटिलता, गहनता, और साफ-सुथरी थाप, उनकी वादन शैली में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थीं। करियर और योगदान उस्ताद अमीर हुसैन खान ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रमुख कलाकारों के साथ संगत की, जिनमें उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान, उस्ताद अमीर ख़ान, पंडित रवि शंकर, और उस्ताद अली अकबर ख़ान जैसे दिग्गज शामिल थे। उनके तबले की थाप में एक विशेष तरह की मिठास और शक्ति थी...

उस्ताद अहमदजान थिरकवा Ustad Ahmadjan Thirkva

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 जन्म: (1881; मृत्यु: 13-1-1976) उस्ताद थिरकवा का जन्म उत्तर प्रदेश के मोरादाबाद गाँव में हुआ था। उनके दादा (मां के पिता) उस्ताद कलंदर बन्नाश एक कुशल तबला वादक और संगीतकार थे। कलंदर बख्श के दो बेटे, उस्ताद फैयाज हुसैन खान और खान साहब के मामा उस्ताद बसवार खान भी महान तबला वादक थे। साथ ही उनके चाचा उस्ताद शेर खान भी एक महान तबला वादक और संगीतकार थे। उनके पिता हुसैन बनाश है एक वायलिन वादक थे। इसलिए खान साहब को बचपन से ही संगीत विशेषकर तबला का चस्का लग गया। जब खान साहब 10-11 साल के थे, तो उनके बड़े भाई मियांजान उन्हें मेरठ के पास लालियान के उस्ताद मुनीर खा के पास तबला सीखने के लिए ले गए। उस्ताद मुनीरखा ने अपना हाथ देखने के लिए कुछ बजाने को कहा, उस समय, उस्ताद मुनीर खा के पिता, उस्ताद काले खान ने कहा, "देखो, यह बच्चे के हाथ कैसा थिरकता है।" तभी से वे खान साहब को 'थिरकू' कहने लगे। आगे थिरकू का 'थिरकवा' हुआ! उस्ताद मुनीर खान की बदौलत उन्हें लखनऊ, फर्रुखाबाद, दिल्ली और अजराड़ा नामक चार घरानों पर नियंत्रण मिल गया। उन्होंने लगभग 26 वर्षों तक उस्ताद मुनीर खान के अधीन अध्...

ध्रुपद गायन शैली - Dhrupad Gayan

ध्रुपद गायन शैली  ध्रुपद गायन शैली शास्त्रीय संगीत की प्राचीन गायन शैली है । प्राचीन प्रबन्ध गायकी से ही ध्रुपद गायकी की उत्पत्ति मानी जाती है । स्वर , ताल , शब्द एव लय युक्त शैली ध्रुपद कहलाती है । ध्रुपद का शाब्दिक अर्थ वह रचना या गीत है जिसमें शास्त्रोक्त संगीत समस्त पद अर्थात् स्वर, ताल, शब्द आदि अचल या अडिग हों । भरत कृत ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में ‘ ध्रुवा ‘ शब्द का उल्लेख मिलता है । यह ध्रुवा गीत छन्द निबद्ध होते थे । भरत ने इसमें 18 अंगों का वर्णन किया है । ध्रुवा एक काव्य स्वर तथा छन्द में बद्ध रचना थी , जिसके सुनिश्चित अंग थे तथा उस गीत में मति , वर्ण , अलंकार , ग्रह आदि का सम्बन्ध अखण्ड रूप से सुनियोजित था । कालिदास , बाण , सुबन्धु जैसे संस्कृत कवियों की कृतियों में भी ध्रुवागीति का उल्लेख मिलता है । ऐसा माना जाता है कि इन्हीं ध्रुवागीति में आवश्यक परिवर्तनों के साथ मध्यकालीन ध्रुपदों का विकास हुआ । ध्रुपद गायन शैली का आविष्कार एवं विकास ध्रुपद का आविष्कार एवं विकास ध्रुपद भारतवर्ष का एक प्राचीन गायन है कई विद्वानों के मतानुसार , ध्रुपद शैली का आविष्कार एवं विकास 15 वीं शताब...

धमार गायन शैली - Dhamar Gayan

धमार गायन शैली धमार – जिसमें होरी की धूमधाम के साथ गीत का गायन होता है , वह धमार गीत कहलाता है । यह ध्रुपद शैली से गाया जाने वाला एक गीत है । चौदह मात्राओं की धमार ताल के निबद्ध गीत में अधिकांशत : होरी सम्बन्धी पदों की रचना होती है । राधा और कृष्ण इस गीत के नायक होते हैं । इसका जन्म स्थान ब्रज को माना जाता है । फाग से सम्बन्धित होने के कारण इसे ‘ पक्की होरी ‘ भी कहते हैं । धमार गीत की व्युत्पत्ति धमार गीत की व्युत्पत्ति यह गायकी एक रंगारंग परम्परा की गायन शैली है , इसी कारण ‘ धमार ‘ को धमाल – धमार ’ और ‘ घमारी ’ के नाम से भी बुलाया जाता है । धमाल का अभिप्राय ही धमा – चौकड़ी करना है । धमार शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की ‘ धम् ‘ धातु से हुई ‘ धम् ’ धातु में अच् प्रत्यय लगने पर ‘ धमार ‘ शब्द बनता है । धमार का उद्देश्य गम्भीरता से हटकर रंगीन वातावरण उत्पन्न करना है , इसलिए इसकी शैली लय प्रधान है । धमार गीत एक सामूहिक गीत है , जो टोलियों में गाया जाता है । मूल रूप से धमार गीत होली सम्बन्धी गीत है । यह शृंगार रस से परिपूर्ण गायकी है । इसकी शैली लय प्रधान है , जिसके स्थायी व अन्तरा दो भा...

सादरा गायन शैली - Sadara Gayan

सादरा गायन शैली सादरा अर्द्धशास्त्रीय संगीत और लोकगीत के बीच की कड़ी है गायन की यह शैली दादरा से बहुत मिलती – जुलती है । सादरा को अधिकतर कथक गायक गाते हैं । इसमें कहरवा , रूपक , झपताल तथा दादरा इन तालों का प्रयोग होता है । भाव की दृष्टि से गीतों में शृंगार रस और उसकी चंचलता की प्रधानता रहती है इसलिए इसकी प्रकृति प्रायः ठुमरी की तरह होती है । ठुमरी गायक सादरा भली प्रकार गा सकते हैं । वाजिद अली शाह ने कई सादरा गीत भी लिखे जो कि अधिकांशतः खमाज राग में हैं । कुछ विद्वानों का ऐसा विचार है कि मध्यकाल में ठुमरी के साथ मिलती – जुलती एक और शैली प्रचार में आई जिसको सादरा कहा गया । क्रमिक पुस्तक मालिका के 6 भागों में ध्रुवपद के अन्तर्गत झपताल की बन्दिशें भी प्राप्त होती हैं , जिससे सादरा शैली का आभास मिलता है । राग बिहाग , कायम रहे राज़ और उमर दराज आदि रचनाएँ सादरा के अन्तर्गत गाई जाती हैं । सादरा की विशेषता सादरा शैली की निम्न विशेषताएँ हैं – • सादरा के भाग ध्रुवपद की भाँति दो अथवा चार स्थायी , अन्तरा संचारी आभोग आते हैं । इस गायन में ध्रुवपद तथा होरी गायन से अधिक चपलता है । सादरा गायन में स्थाय...

ख्याल - Khyal

ख्याल ख्याल गायन शैली – ‘ ख्याल ‘ हिन्दुस्तानी कण्ठ संगीत की सर्वाधिक प्रिय ( लोकप्रिय ) शैली ‘ ख्याल ‘ फारसी भाषा का शब्द है । ख्याल का अर्थ विचार या कल्पना है । जब एक गायक अपनी प्रौढ़ कल्पना को स्वर , लय , तान के माध्यम से सांगीतिक आकार देता है , तो उसे ख्याल कहा जाता है । प्रसिद्ध सूफी सन्तों की रचना ख्याल कही गई है । कल्पना ख्याल शैली का ही प्राण है । ख्याल गायन शैली का आविष्कार ख्याल का आविष्कार यह गीत शैली कब से प्रारम्भ हुई , इसके विषय में दो मत पाए जाते हैं । एक तो यह कि इसका आविष्कार ई . 14 में अमीर खुसरो ने किया और दूसरा यह कि इसकी परम्परा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है ।  विद्वानों के अनुसार , मध्यकालीन संगीत में प्रचलित ‘ रूपक ‘ नामक प्रबन्ध से ख्याल शैली का विकास हुआ है । एक मत के अनुसार ख्याल का आविष्कारक अमीर खुसरो को माना जाता है , लेकिन उसके ग्रन्थों को देखने पर यह ज्ञात होता है कि उस समय कव्वाली आदि , प्रचार में ख्याल का उल्लेख नहीं मिलता है । तानसेन के समय में भी ख्याल गीत का नाम सुनने में नहीं आता , क्योकि इस समय तो ध्रुपद गायकी प्रचलित थी । ऐसा माना जाता है कि ब...

तराना - Tarana

तराना क्या है तराना ? तराना शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर हिन्दुस्तानी संगीत की विशेषताओं का पता चलता है । तराना का सम्बन्ध स्वर और वर्ण दोनों से होता है । इस दृष्टि से देखने पर यह प्रतीत होता है कि तराना शब्द हिन्दी या संस्कृत का नहीं वरन् फारसी का है । तराना की उत्पत्ति विद्वानों के मतानुसार तराना की उत्पत्ति ‘ तरूनम ‘ शब्द से हुई है । तरूनम अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ स्वर माधुर्य , खुश , आवाज आदि है । जब कोई कवि अपनी रचना को गाता है तो वह एक विशेष प्रकार की धुन का प्रयोग करता है उसी लोग तरूनम कहते हैं । तराने के आविष्कार के विषय में कई मत हैं कुछ लोग तराने का आविष्कारक अमीर खुसरो को मानते हैं । मारिफुन्नगमात के रचयिता अली के अनुसार , यह तर्ज तराना दिल्ली घराने के अमीर खुसरो का आविष्कार किया हुआ है । श्रीपद बन्द्योपाध्याय के अनुसार “ तराना लोकप्रिय गायन का एक प्रकार है जिसमें अर्थहीन शब्द जैसे ता , ना , दानी आदि के प्रयोग से तराना शैली बनी है । “ तराना क्या है ? ‘ तराना ‘ एक प्रकार की आधुनिक गायन शैली में गीत का प्रकार है । इसका निर्माण निरर्थक वर्णों से होता है । यह ...

त्रिवट क्या है ? - Trivat

त्रिवट क्या है ? जब किसी तराने में मृदंग के बोलों का प्रयोग किया जाता है , तो उस विशिष्ट गायन शैली को त्रिवट के नाम से बुलाया जाता है । यह हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के शास्त्रीय गान के मंच पर प्रदर्शित की जाने वाली एक गायन – शैली है । त्रिवट की उत्पत्ति प्राचीनकाल में अलीक्रम प्रबन्ध के एक केवाड नामक प्रबन्ध से इस गायन शैली त्रिवट की उत्पत्ति मानी जाती है । दक्षिण में त्रिवट को एक अन्य नाम चोल्लुकेटु के नाम से पुकारा जाता है । इसकी उत्पत्ति के सन्दर्भ में ऐसा माना जाता है कि मृदंग , तबला आदि शैलियों के मिश्रण के परिणामस्वरूप हुआ है तथा त्रिवट रचनाएँ गुणीजनों द्वारा रची गई हैं । त्रिवट शैली की विशेषता क्या है ? त्रिवट शैली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं – त्रिवट शैली में तराना के समान ही सामान्यतः इसे भी द्रुत लय में गाए जाने का प्रचलन है । गायक द्वारा मृदंग अथवा पखावज के बोल जिस प्रकार विभिन्न लयों में गाए जाते हैं , वैसे ही बोल उसी लय में मृदंग अथवा पखावज वादक द्वारा बजाए जाते हैं इस प्रकार मृदंग के साथ गाए जाने पर अद्भुत रस का सृजन होता है । यह प्रक्रिया विशेष रूप से स्वर व लय प्...

चतुरंग क्या है ? - Chaturang

चतुरंग क्या है ? चतुरंग यह हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के शास्त्रीय गान के मंच पर प्रदर्शित की वाली एक शैली है । इसके नाम से ही ज्ञात होता है कि इसमें चार अंगों सम्मिश्रण है । अतः यह चार अंगों के सहयोग से निर्मित गायन शैली चतुरंग को मुख्य रूप से ख्याल अंग के साथ गाया जाता है , परन्तु इसमें ख्याल की अपेक्षा तानों का प्रयोग कम या अल्प किया जाता है । चतुरंग की उत्पत्ति चतुरंग की उत्पत्ति सम्भवतः तीन प्रकार की चतुरंग की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद हैं , किन्तु ऐसा माना जाता है कि सरगम पुस्तक के लेख में बताया गया है कि शैलियाँ एक ही बन्दिश में बाँधकर शिष्यों को बताने के लिए ही संगीत पण्डिता ने चतुरंग का आविष्कार किया । चतुरंग के आविष्कारिक काल मतंग काल से उत्पन्न माना जाता है अर्थात मतंग काल इसका प्रचलन को आरम्भ हुआ । अतः चतुरंग शैली मतंगमुनि के काल से चली आ रही है ” क्रमिक पुस्तक ” मालिका के तीसरे भाग में राग देश में चतुरंग गीत प्रकार दिया गया है , जिसकी रचना बन्दिश के तीन घटकों में हुई । चतुरंग के चार अंग क्या हैं ? चतुरंग में चार अंग होते हैं , जिसके परिणामस्वरूप यह चतुरंग ...

सरगम क्या है ?

सरगम क्या है ? संगीत के सुरों को ‘ सरगम ‘ कहा जाता है । सरगम शब्द प्रथम चार सुरों के नामों के प्रथम अक्षर के मेल से बनाया गया है । सरगम को एक प्रकार से संक्षिप्तीकरण भी कह सकते हैं । संगीत के मुख्य सात सुर होते हैं , जिनके नाम षड्ज , ऋषभ , गान्धार , मध्यम , पंचम , धैवत और निषाद हैं । सामान्य भाषा इसे सा , रे , ग , म , प , ध तथा नि कहा जाता है । प्रथम चार सुरों के बिना मात्रा वाले अक्षरों को लेकर सरगम बनाया गया है । सात मुख्य सुरों के अतिरिक्त पाँच सहायक सुर भी होते हैं , जिन्हें कोमल रे , कोमल ग , तीव्र म , कोमल ध , और कोमल नि कहा जाता है । इन्हीं सुरों की सहायता से संगीत की रचना की गई है ।। सरगम गीत क्या है ? सरगम गीत – रागबद्ध व तालबद्ध स्वर रचना को ‘ सरगम गीत ‘ कहते हैं । इसमें केवल स्वर ही होते हैं तथा किसी भी प्रकार की कोई कविता नहीं होती । सरगम गीत अलग – अलग तालों एवं रागों में निबृद्ध होते हैं । इन्हें गाने अथवा अभ्यास द्वारा • विद्यार्थियों को राग एवं स्वरों के ज्ञान में सहायता मिलती है ।

लक्षण गीत - Lakshan geet

लक्षण गीत क्या है ? लक्षण गीत लक्षण गीत दो शब्दों ‘ लक्षण ‘ व ‘ गीत ‘ के योग से बना हुआ है । लक्षण का अर्थ किसी वस्तु , प्राणी व स्थान इत्यादि के चिह्न से लगाया जा सकता है । गीत एक काव्यात्मक प्रबन्ध है , जो पद साहित्य की एक विशिष्ट शैली है । साधारण रूप से लक्षण गीत का शाब्दिक अर्थ किसी वस्तु , प्राणी या स्थान विशेष के लक्षण बताने वाले गीत है ।  प्रत्येक राग का अलग से लक्षण गीत निर्मित होता है । ताल , संगीत और राग गायन की महत्त्वपूर्ण घटना है , इसलिए जहाँ राग के स्वरूप को गीत के द्वारा उसी राग में स्वरबद्ध कर लक्षण गीतों का निर्माण हुआ , वही विभिन्न तालों के स्वरूप बताने वाले लक्षण गीतों का भी निर्माण हुआ , जिन्हें ताल लक्षण गीत भी कहा जा सकता है । लक्षण गीत के प्रकार क्या है ? लक्षण गीत के निम्न तीन प्रकार हैं – राग लक्षण गीत- राग लक्षण गीत किसी राग विशेष के लक्षणों को बताने वाला गीत है । वर्तमान समय में लक्षण गीत के राग में लक्षण गीत का प्रसार अधिक पाया जाता है । इसमें राग के थाट , स्वर , वादी , संवादी गायन , समय एवं प्रकृति इत्यादि का विवरण मिलता है । वर्तमान समय में राग लक्षण ग...

ठुमरी गायन शैली - Thumari Gayan Shaili

ठुमरी गायन क्या है ? ठुमरी शब्द का व्यवहार हिन्दुस्तानी संगीत की एक विशेष गेय विधा के लिए किया जाता है । यह एक भावप्रधान व चपल चाल वाला गीत हैं । इसे आजकल शास्त्रीय संगीत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यह एक प्रकार का शृंगार रस प्रधान नृत्य गीत ही है , क्योंकि शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत लिए हुए है । यह गीत शैली स्वरों के माध्यम से वही भाव मुखरित कर देती है , जो भाव नृत्य में अभिनय के द्वारा व्यक्त किए जाते हैं । ठुमरी के नाजुक व चपल मिजाज होने के कारण इसे गाने के लिए इसके मिजाज के रागों को चुना जाता है । ये राग हैं – खमाज , काफी , माण्ड , बरवा , तिलंग , पीलू तथा भैरवी । इस गायन विधा में राग की शुद्धता का ध्यान नहीं किया जाता है , इसलिए मिश्र राग इसके लिए उपयुक्त हैं ।  सुनील कुमार के अनुसार , ‘ ठुम ‘ और ‘ री ‘ इन दोनों शब्दों के योग से ठुमरी शब्द बना है । ठुम शब्द ‘ ठुमकत चाल ‘ अर्थात् राधा जी की चाल और ‘ री ‘ ‘ शब्द ‘ रिझावत ‘ अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के मन को रिझाने की ओर संकेत करता है । ठुमरी की उत्पत्ति ठुमरी का जन्म सम्भवतः लखनऊ के दरबार में हुआ है । विद्वानों का ...

दादरा गायन शैली - Dadara Gayan shaili

दादरा गायन शैली   दादरा वस्तुतः ठुमरी शैली का गायन है । दादरा गीत शृंगार रस प्रधान गीत है इसकी प्रकृति ठुमरी के समान प्रतीत होती है । इसी कारण दादरा गायन शैली को अधिकतर ठुमरी अंग के रागों में गाया जाता है । दादरा ठुमरी की अपेक्षा हल होती है । प्रायः यह देखा गया है कि ठुमरी गाने वाले गायक – गायिकाएँ दादरा गाते हैं । इसमें जन – मन – रंजन करने की पर्याप्त शक्ति होती है । दादरा पूर्व उत्तर प्रदेश की विशेष गायन शैली है । यहाँ के गायक दादरा गायन निपुण होते हैं । दादरा भाषा पूर्वी हिन्दी की किसी – न – किसी बोली के अनुरूप होती है । पहले इस गायन को कोठे पर ही गाया जाता था अब इस गायन शैली को प्रतिष्ठित गायक भी गाते हैं । दादरा शैली में अन्य गायन शैली की तरह ही स्थायी व अन्तराल दो भाग होते हैं । दादरा के राग दादरा प्रायः काफी , पहाड़ी, खमाज , माण्ड आदि रागों में गाए जाते हैं । दादरा गायन में राग की शुद्धता पर विशेष ध्यान न देकर रंजकता पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है । दादरा में भावात्मक गीत तत्त्व , ताल , राग आदि होता है । दादरा और ठुमरी में भी इन रागों का प्रयोग होता है ।

टप्पा गायन शैली - Tappa Gayan shaili

टप्पा गायन शैली   टप्पा संस्कृत भाषा का शब्द माना जाता है , जिसका अर्थ – उछलना कूदना छलांग लगाना है । यह पंजाब में अत्यधिक लोकप्रिय है । मूलरूप से यह पंजाब की लोक गायन शैली रही है , जो कालान्तर में विभिन्न विशेषताओं से विभूषित होकर सम्पूर्ण भारत में तो प्रचलित हुई ही है । इसने भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की गायन शैली में प्रमुख स्थान प्राप्त किया है । यह गायन शैली शृंगार रस प्रधान गायन शैली है । इस गायन शैली का प्रचार सर्वप्रथम गुलाम नबी शोरी ने किया , इसलिए इन्हें इसका आविष्कारक माना जाता है । इसमें गीत के शब्द बहुत अल्प होते हैं , इसके स्थायी और अन्तरा नामक दो भाग होते ख्याल की भाँति इसमें भी खटका , मुर्की , मींड ताल आदि का सुन्दर रूप देखने को मिलता है । इसका उद्गम पंजाब के पहाड़ी प्रदेशों में हुआ और विकास अवध के दरबार में ठुमरी के साथ – साथ हुआ । पंजाब के मियाँ शोरी तथा गायकी के जन्मदाता माने जाते हैं । इस टप्पा गायन शैली के गीतों का प्रवर्तन पंजाब के ऊँट चराने वालों के द्वारा किया गया । उनकी आकर्षणता के कारण इन्हें शास्त्रीय संगीत में स्थान प्राप्त हुआ । यह पूर्णत : सत्य है कि इस ...

प्रबंध Prabandh

प्रबंध  संगीत में प्रबंध का अर्थ है "धातु और अंगों की सीमा में बँधकर जो रूप बनता है, वह प्रबंध कहलाता है।" आधुनिक काल में बन्दिश शब्द का प्रबंध के स्थान पर प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ भी बाँधने से है। ठाकुर जयदेव सिंह के मत से, "Prabandh was a vocal composition form, a systematic and organized Geeti (song) with Sanskrit texts. The word "Prabandh" literally means anything well-knit or well-fitted." कोई भी शब्द रचना सार्थक अथवा निरर्थक प्रबंध कहला सकती है, यदि वह धातु और अंगों से बद्ध हो। इस प्रकार प्रबंध का संबंध रचना से है। प्रबंध ही बाद में गीत कहे गये। प्रबंध में अक्षर ज्यादा और गीत में स्वरों का फैलाव अधिक देखने को मिलता है। प्रबंधों के ही अधिक और विकसित पर सरल रूप गीत कहलाए। गीत का अर्थ है- 'जो गाया गया' अर्थात् प्रबंधों को सरल रूप देकर गाना ही गीत कहलाया। अनेक ग्रंथों में प्रबंध शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे- मतंग के बाद नामदेव ने 'भरत-भाष्य' में प्रबंधों को 'देशी गीत का ध्याय' कहा है, 'मानसोल्लास' में प्रबंध संज्ञा का प्रय...

होरी गायन शैली - Hori Gayan shaili

होरी गायन शैली    होरी शब्द की व्युत्पत्ति का सम्बन्ध शास्त्रीय संगीत की धमार शैली के साथ जोड़ा जा सकता है , क्योंकि इसके साहित्य में प्रायः होरी का वर्णन मिलता है ।   भारतीय संस्कृति में शृंगार और आनन्द महोत्सव के रूप में बसन्त एवं होली क्रीड़ा का हमेशा से महत्त्व रहा है । प्राचीन ग्रन्थों में इसे मदनोत्सव कहा जाता है ।। ऋतुराज के आने पर उसके मनमोहक वातावरण में स्वयं को सम्मिलित करते अपनी उमंगों को व्यक्त करने का त्योहार है होली । होरी मूलत : ब्रज शैली का गायन है । ख्याल गायक जब होली सम्बन्धी गीतों को विभिन्न तालों में गाते हैं , तब उन्हें होरी कहा जाता है । राधा – कृष्ण और कृष्ण – गोपियों की फाल्गुन मास की लीलाओं के वर्णन को जब धमार ताल में गाते हैं , तो उसे धमार कहा जाता है । जब ख्याल गायक उसे त्रिताल दीपचन्दी कहरवा आदि तालों में गाते हैं , तब उसे होरी कहा जाता है । होरी की विशेषता होरी की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं – • उपशास्त्रीय संगीत प्रधान होरी का ढाँचा ठुमरी एवं धमार के अनुरूप ही होता है तथा अधिकांशत : उन्हीं रागों पर आधारित होती है इसमें रागों की शास्त्रबद्ध...

कजरी गायन शैली - Kajari Gayan shaili

कजरी गायन शैली कजरी लोकगीत – लोकसंगीत की विधा कजली अथवा कजरी विभिन्न प्रांतों में जीवन के विभिन्न प्रसंगों , उत्सवों , त्यौहारों आदि पर गाये जाने वाले गीतादि लोकसंगीत के अंतर्गत आते है । यह विभिन्न प्रकार के स्वर , ताल , पद द्वारा गाये जाते हैं । इसी में कजरी नामक एक गीत का प्रकार है जो कि सावन में गायी जाती है यह उत्तर प्रदेश में गाया जाने वाला एक प्रकार का लोकप्रिय लोकगीत है । इसे हम ऋतु गीत भी कह सकते हैं वैसे वर्षा ऋतु में कभी भी इस गीत को गाया जा सकता है । कजरी को कजली भी कहा जाता है । कजरी लोकगीत का वर्णन इसका क्षेत्र मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग है । मिर्जापुर और उसके आसपास का क्षेत्र कजरी के लिए अधिक प्रसिद्ध है । बनारस में कजरी मिर्जापुर से ही पहुँची जो बाद में वहाँ अपना ली गयी । इन गीतों में विरह का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है । कई गीत श्रृंगार रस के भी दिखाई देते हैं । कई गीतों में प्रकृति वर्णन का सुन्दर चित्रण मिलता है । कजरी गायन की अनेक शैलियाँ प्रचलित हैं । कुछ में ठुमरी अंग विशेष रूप से दिखाई देता है । प्रारम्भ में कुछ कजरी लोकगीत के उदाहरण इस प्रकार हैं ...

चैती गायन शैली - Chaiti Gayan Shaili

चैती गायन शैली चैती गायन- चैती भारतीय संस्कृति के अनुसार होलिका पर्व के पश्चात् चैत माह का आरम्भ होता है । चैती उत्तर प्रदेश में चैत के महीने में गाया जाने वाला लोकगीत है । चैती के अर्द्ध – शास्त्रीय गीत विधाओं में भी सम्मिलित किया जाता है । चैत्र के महीने में गाए जाने वाले इस राग का विषय प्रेम प्रकृति और होली रहते हैं । कजरी या कजली भी उत्तर प्रदेश का लोकगीत है । चैत्र के महीने में राम का जन्म होने के कारण इस गीत की हर पंक्ति के बाद अकसर रामा शब्द लगाया जाता है । संगीत के आयोजनों में अधिकतर चैती , टप्पा और दादरा ही गाए जाते हैं । यह राग अकसर राग बसन्त या मिश्र बसन्त में निबद्ध होते हैं । उत्तर प्रदेश मुख्यतया वाराणसी में चैती , ठुमरी , दादरा गाए जाते हैं । जहाँ चैती उत्सव को प्रमुखतया देखा जा सकता है । बारह मासे में चैत का महीना गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है । चैत शैली के राग चैती गायन में कुछ राग विशेष के स्वरों का मिश्रण इन गीतों की धुनों में प्रयुक्त होता है तथा विविध आयामों द्वारा इनमें सौन्दर्य का संचार किया जाता है । अधिकांशतः ये धुनें काफी , राग पहाड़ी , पीलू ...